निवेशकों की बैठक-हिमाचल प्रदेश-
कुल भूषण उपमन्यु
विकास योजना के मोटे तौर पर दो लक्ष्य होते हैं. एक राज्य और देश की जी.
डी पी को बढ़ाना और दूसरा उसके बूते देश की सर्वांगीण आवश्यकताओं की पूर्ती करने की व्यवस्था करना. जिसमें सुरक्षा और ईज ऑफ़ लिविंग शामिल है. एक महत्व पूर्ण आयाम इसके साथ टिकाऊ पन का जुड़ जाता है. यानि हमारी योजनाएं ऐसी नहीं होनी चाहिए जो आज तो समृद्धि लाने वाली हों किन्तु भविष्य की पीढ़ियों के लिए कंगाली और जीने की मूल व्यवस्थाओं हवा, पानी, भोजन का ही संकट पैदा कर दें. इस तरह की समझदारी विश्व पटल पर तो आनी ही चाहिए किन्तु दूसरे की गलत छूट लेने की प्रवृति को हम अपने लिए गलती करने के बहाने के रूप में प्रयोग नहीं कर सकते. इस मामले में चीन और अमेरिका के उदाहरण गैर जिम्मेदारी भरे हैं. हालांकि यूरोप वैकल्पिक तकनीकों के बल पर कुछ बेहतर करके जलवायु परिवर्तन जैसे खतरों के प्रति जिम्मेदारी का व्यवहार कर रहा है. उससे तकनीकी तौर पर काफी बातें सीखी जा सकती हैं.
पैरिस बैठक में भारत का रुख भी सकारात्मक दिशा में मुड़ने का दिखा है. इन सभी पक्षों को हिमाचल में इन्वेस्टर मीट के सन्दर्भ में भी देखा जाना जरूरी हो जाता है क्योंकि हिमाचल हिमालय का अग्रणी राज्य माना जाता है और इसके गलत रस्ते पर चल निकलने से अन्य राज्य भी इसकी नकल कर सकते हैं. हिमाचल की अर्थव्यवस्था में प्राथमिक क्षेत्र ,यानि कृषि, बागवानी, पशुपालन का योगदान 19.72%, उद्योग क्षेत्र का 38.35%,और टरशरी क्षेत्र / सेवा क्षेत्र का योगदान 41.93%है. निजी क्षेत्र के उद्यमों में कुल 1 लाख 52हजार 526 लोगों को रोजगार मिला है जिनमें से केवल 60हजार 794 लोगों को ही बड़े और मंझोले उद्योगों में काम मिला है. हालांकि 70% से ज्यादा पूँजी इन बड़े उद्योगों में ही लगी है. शेष 91लाख 732 लोगों को सूक्ष्म और लघु उद्योगों में काम मिला है. इसके अलावा 37हजार 205 लोगों को खादी और ग्रामोद्योग क्षेत्र में काम मिला है. इसलिए हिमाचल जैसे राज्य में जहां 9लाख से अधिक बेरोजगार पंजीकृत हैं वहां सूक्ष्म, लघु और खादी ग्रामोद्योग को उसकी सही जगह मिलनी चाहिए.
उद्योगों को प्राथमिकता वाले और गैर प्राथमिकता वाले वर्गों में बाँटने के बजाय हरे, लाल, और पीले उद्योगों में बाँटना चाहिए. यदि हम सच में ही पर्यावरण को बिना नुकसान पंहुचाए विकास कार्य की योजना बनाना चाहते हैं तो हिमालय क्षेत्र में सीमेंट, ताप बिजली, प्रचलित जलविद्युत तकनीक से जल विद्युत् दोहन, जल प्रदूषण कारक रसायन उद्योग और प्लास्टिक उद्योग को लाल सूची में डाल बिलकुल प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए बल्कि प्रतिबंधित करना चाहिए. बृहदाकार पर्यटन, फार्मास्युटिकल, सिविल एविएशन, आदि को पीली सूची में डालना चाहिए, जिन्हें पूर्ण सावधानी से और वैकल्पिक तकनीकों के आधार पर लागु करना चाहिए. तीसरा क्षेत्र हरित उद्योगों का होगा जो हिमालय क्षेत्र के लिए बिलकुल उपयुक्त होंगे. जैसे कि कृषि विपणन और प्रसंस्करण, फसल तुड़ाई के बाद की तकनीकें, जिम्मेदार पर्यटन, पर्यटकों की आवभगत, वेलनेस-स्वास्थ्य सेवाएं-आयुष, नवीकरणीय उर्जा जिसमें सौर,वायु,और असली माइक्रो जलविद्युत जिसमें वोरटेक्स तकनीक,हाइड्रो काई नैटिक तकनीक और पनचक्की स्तर पर बिजली उत्पादन का विशेष स्थान हो , सूचना प्रौद्योगिकी,इलेक्ट्रोनिक्स, शिक्षा और कौशल विकास, शहरी विकास और गृह निर्माण आदि. इन्हें विशेष प्रोत्साहन देकर बेरोजगारी समाधान के साथ राज्य के सकल घरेलू उत्पाद को भी बढ़ाया जा सकेगा.
आधारभूत विनिर्माण जैसे सडकें, और परिवहन, के क्षेत्र में भी अलग सोच की जरूरत है. विशेष कर सड़क निर्माण ने पर्वतीय क्षेत्रों में परिवहन सुविधा तो दी किन्तु पर्वतीय क्षेत्रों में स्थायी भयंकर भूस्खलनों से अस्थिर क्षेत्रों को और अस्थिर कर दिया है और कटाई से उत्पन्न मलबे को ढलानों पर या नदी तलों पर फैंक देने से नदी तल ऊपर उठ जाते हैं जिससे बाढ़ की विभीषिकाए बढ़ी हैं और वनों का विनाश हुआ है. बांधों और बड़ी चौड़ी सडकों के बारे में हमें उत्तराखंड के अनुभवों से सीखना चाहिए. केदारनाथ त्रासदी और उसके बाद की घटनाओं के संदेश अनदेखे नहीं किए जा सकते.
जलवायु परिवर्तन की दिशा में बढ़ते कदम खतरे की घंटी बजा रहे हैं. इस वर्ष की अप्रत्याशित देश व्यापी बाढ़ का संकट हो, उसी के साथ सूखे का दृश्य हैरान करने वाला है. हिमालय क्षेत्र में की जाने वाली अवैज्ञानिक समझ से छेड़ छाड़ इस संकट को और बढ़ाएगी. यह बात हमें भूलनी नहीं चाहिए ख़ास कर जब हम हिमालय क्षेत्र में औद्योगिक विकास की रूप रेखा बना रहे हों. दिल्ली का स्वास्थ्य आपात काल भी हमारे लिए क्या चेतावनी दे रहा है उसे सुना जाना चाहिए. कहीं हिमालय को भी हम उस दिशा में न धकेल दें. यदि ऐसा हुआ तो चार दिन शीतल शुद्ध वातावरण में देश के पर्यटकों के लिए उपलब्ध अपने मन व् शरीर को पुन: उर्जित करने की सुविधा और स्वास्थ्य सुधार अवसर को भी हम छीन लेंगे. इसका आर्थिक नुकसान हिमालय के पर्यटन और स्वास्थ्यसुधार उद्योग को झेलना पड़ेगा.
विकास की वैज्ञानिक समझ को दरकिनार करके शुरू हुई दौड़ का बड़ा अमानवीय चेहरा विस्थापन भी है. सारे देश ने इस दंश को झेला है. टीहरी हो या नर्मदा, बड़े बांधों ने हर कहीं स्थानीय लोगों से अन्याय किया है, जिसे विकास के सपने की चका चौंध में ढक दिया जाता है. हिमाचल ने तो सबसे पहले भाखड़ा बांध के रूप में 32हजार परिवारों के विस्थापन को झेला ,जिन्हें केवल 2-4 सौ रु.बीघा के हिसाब से मुआवजा देकर विस्थापित किया गया और आज तक वे पुनर्वासित नहीं हो सके हैं. कुछ आसपास के वनों में सरकार के इस आश्वासन पर बस गए कि आपको यहीं भूमि दे देंगे.
किन्तु कुछ ही लोगों को 70 के दशक में कुछ नौतोड़ भूमि दी गई बाकी के सिर पर अवैध कब्जाधारी होने की तलवार लटक रही है. कब उन्हें जमीन से बेदखल कर दिया जाए कोई नहीं जानता. कुछ को हिसार में जगह दी गई उनमेंसे 60% को अभी तक जमीनों के पट्टे नहीं मिले हैं. पोंग बांध से 16 हजार परिवार विस्थापित हुए उनमें से भी 2-3 हजार परिवार अभी तक ठोकरें खा रहे है. न्यायालयों से गुहार लगा कर लाखों रु. खर्च करके राहत तलाशने को मजबूर हैं. यहां तक कि उच्चतम न्यायालय में हिमाचल सरकार ने मुकद्दमा जीत कर अपने हिस्से का राज्य पुनर्गठन के समय का बकाया भी अभी तक नहीं मिल सका है. इस बीच कांग्रेस और भाजपा की सरकारें कई बार आई और गईं किन्तु बात आगे नहीं बढ़ी. जिससे राजनैतिक और प्रशासनिक तबके की इस दिशा में असंवेदनशीलता जग जाहिर होती है. एक प्रजा तन्त्र और तानाशाही में यही तो फर्क है की प्रजा तन्त्र में हर कोई अपने साथ हुए अन्याय और भेद भाव का निराकरण पाने के लिए सरकार के द्वार से न्याय पाने का हकदार होता है और ताना शाही में नहीं. पहले तो यह बहाना था की देश में कोई पुनर्वास का न तो कोई क़ानून था और न ही कोई अनुभव. अब तो दोनों हैं. फिर भी प्रशासन मुआवजा देने के समय न्यूनतम देने की कोशिश करता दीखता है, न्यायपूर्ण क्या हो इसकी प्रवाह नहीं होती है. इस का उदाहरण हिमाचल में किरतपुर- मनाली फोरलेन सड़क निर्माण में देखने को मिला . जहां उपयुक्त ने अधिगृहीत जमीनों को फैक्टर 1 के आधार पर अधिग्रहण करने का निर्णय सुनाया. जिससे जमीनों का मुआवजा सर्किल रेट से दोगुना होगा. यदि फैक्टर 2 लगाया जाता तो मुआवजा 4 गुना मिलता. किन्तु आम आदमी के भविष्य के प्रति चिंता और न्याय ब्यूरोक्रेसी का स्वभाव नहीं है वह तो अभी तक भी अंग्रेजी राज के शासक की भूमिका को भूलना ही नहीं चाहती. हालांकि नए लोगों में काफी बदलाव है फिर भी बड़े निर्णय गरीबों की कठिनाइयों को बिना समझे भी होते हैं. जमीन स्थाई आजीविका साधन है. इसके छीन जाने की भरपाई एक बार का साधारण मुआवजा कर ही नहीं सकता क्योंकि जब विस्थापित जमीन खरीदने जाता है तो उसकी कीमत पहले ही चार गुना हो चुकी होती है. फिर अपने परिवेश से उजड़ कर नए सिरे से शुरुआत करना कई अदृश्य दिक्कतें लता है, जिसकी भरपाई असंभव होती है. हां खुला पैसा हो तो कुछ रस्ते निकल आते हैं. इसका एक पक्ष और भी है. किसान भूमि में मेहनत से पैसा कमाना जानता है वह पैसे से पैसा कमाना नहीं जानता ,इस कारण कई लोग पैसे का दुरूपयोग करके निहत्थे होजाते हैं. जमीन का मुआवजा सर्किल रेट का 4 गुना तो मिलना ही चाहिए जिसमें से 40% मुआवजा राशी सरकारी खजाने में जमा की जानी चाहिए और उसके ब्याज में से पोस्ट आफिस की मासिक आय योजना की तर्ज पर स्थाई पेंशन विस्थापित और उनके परिवार को सदा के लिए दी जानी चाहिए . इससे एक सामाजिक सुरक्षा का वातावरण बनेगा, जिसका बोझ भी सरकार पर नहीं होगा.
हिमाचल सरकार इन बातों को ध्यान में रख कर इन्वेस्टर मीट को देखने का यदि प्रयास करे तो ही हिमाचल में औद्योगी करण हिमालय की पारिस्थितिकीय सेवाओं को सारे देश के लिए सुरक्षित रखते हुए प्रदेश के बेरोजगारों को रोजगार के अवसर उपलब्ध करवा सकता है वरना प्रचलित उद्योग मॉडल तो अधिकाधिक स्वचालित मशीनों का उपयोग करते हुए उत्पादन को तो बढ़ा लेता है किन्तु रोजगार में वृद्धि नहीं होती. हमें आशा करनी चाहिए एक अच्छी समझ की जीत होगी.
कुल भूषण उपमन्यु