शालिनी चंडीगढ़
27 अप्रैल, तारीख़ बढ़ रही है।तारीख़ तो बढ़ रही है ।लेकिन दिनों का पता नहीं चल रहा है।कल इतवार था ।इस बात का पता दोपहर को एक वॉट्सऐप के फॉरवर्ड मैसेज से पता लगा।देर तो हो गई थी ।पर फिर भी सोचा इस इतवार को इतवार की तरह ही मना लेते हैं।
पर इतवार कहाँ मानने वाला था ।वो तो नाराज़ था कि दोपहर में ,मैं हूँ याद आया?
अब इसे कौन बताए के सप्ताह के बाक़ी सारे दिन तुम ही से तो मुक़ाबला कर रहे हैं। पहले जो सबसे शांत ,आराम से धीरे -धीरे निकलने वाला दिन था। आज सप्ताह के बाक़ी सारे दिन ,जिनमें घड़ी की रफ़्तार को पकड़ना बहुत मुश्किल था ।वो सब टकटकी लगाए खड़े हैं।
हर एक दिन को इतवार ही बनना है ।
उसमें भी मुक़ाबला है कि सोमवार बेहतर इतवार बने या वीरवार।
ये भी एक कमाल की बात है।जिसे दुनिया से कोई मतलब नहीं था ।घड़ी की टिक -टिक समझ ही नहीं आती थी ।कहता था तुम बस ख़ुश रहो ।ये वक़्त साथ में बिता लो। मुझसे अच्छे से अपने दिल को भर लो क्योंकि मैं जो यादें आज बना रहा हूँ ।उन यादों के सहारे ही तुम्हारे बाक़ी के छह दिन कटेंगे।
मैं छे दिन बाद दोबारा आ जाऊँगा।
आज वही सबसे शांत और ढीला -ढाला सा इतवार अपनी शख़्सियत को खोज रहा है। मैं हूँ की नहीं हूँ ,हर सप्ताह पहुँचता है।
तुम ही तो हो प्यारे इतवार। जिसे ज़िंदगी की तेज़ी से कभी कोई फ़र्क नहीं पड़ा। जिसकी रफ़्तार को घड़ी की टिक -टिक ने कभी तेज़ या धीमा नहीं किया। तुम ही तो हो जिसने ख़ुद के होने का पता करने के लिए कभी किसी से मुक़ाबला नहीं किया।
ये तुम्हारा ही विश्वास है कि तुम तब भी थे और तुम आज भी हो। कल से बहुत ज़्यादा। हर दिन अब तुम्हारे ही रंग में रंग गया है।
रिश्तों को ज़िंदा रखने का तरीक़ा तो तुम हमेशा बताते थे। आज तुम्हारी धीमी रफ़्तार में ज़िंदगी को ज़िंदा रखते हैं।
तुम्हें भूल गये हैं ऐसा नहीं है ।अब तो ये हैं की बस अब तुम ही हो।