, भलाई मॉ की प्रार्थना प्रथा से बेहतर

भलाई मॉ की प्रार्थना प्रथा से बेहतर

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 चम्बा ज़िले में स्थित एक छोटे से गाँव  भलाई में इस मंदिर में हर रोज़ कम से कम 50 बकरों की बलि दी जाती थी। यहाँ मैं 50 कम से कम कह रही हूँ अक्सर इससे ज़्यादा ही होते थे। आज ये ही  वो मंदिर है जो देश भर में बलि प्रथा को समाप्त  करने के लिए एक बड़ा नाम बन गया है। इस मंदिर के बारे  मैं आपको डॉक्टर  लोकिनन्द शर्मा कि ज़ुबानी बताउंगी। यह भलाई मॉ के मंदिर के मुख्य पुरोहित है और भलई माता पर एक किताब भी लिख चुके है।

 ये 1979 की बात है जब इस मंदिर की ज़मीन खून से लाल हुआ करती थी। हर तरफ़ बकरे के बाल और उसका बहता हुआ खून दिखाई देता था।

यहाँ की मूर्ति लगभग 5 00साल पुरानी है। यह मंदिर देश में नहीं विदेशों में भी चर्चा में रहता है। इस मंदिर में आने वाला हर एक व्यक्ति यह मानता है कि जब वो यहाँ आ कर बैठता है और अपने पूरे मन से कुछ  माँगे ,अगर उस समय माता की मूर्ति पर पसीना आ जाए तो उसकी मन्नत पूरी हो जाती है। माता हकि इस मूर्ति पर पसीना कैसे  आता है इसका राज आज तक कोई जान नहीं पाया है। पसीने की बूंदें माता के चेहरे पर साफ़  नज़र आती है।

भलेई  माता के मंदिर में बकरों की बलि देना,  माता को अपने मुराद पूरी करने के लिए शुक्रिया कहना माना जाता था।यह प्रथा इतनी पुरानी थी और इससे इतने लोगों का विश्वास जुड़ा था कि इसे बंद कर वाना नाको चने चबाने के बराबर था। लोकि नंद शर्मा बलि प्रथा  को इस मंदिर के परिसर से समाप्त करने के युद्ध के मुख्य योद्धा  है। अपने शब्दों में उन्होंने बताया, नवरात्रों के दिन थे।एक बुज़ुर्ग महिला पालकी में  मंदिर आईं।भलई मॉ  की मूर्ति के सामने आशीर्वाद लेकर जब वो वापस जाने लगी तो उन्होंने लोकि नन्द  से कहा कि आज आप ने मुझे फूल नहीं दिया। जैसे ही लोकि नंद ने उनके हाथ में फूल रखा, उस महिला ने दम तोड़ दिया।नवरात्रों का समय था मंदिर में लोगों का ताँता लगा हुआ था।उस वक़्त वहाँ बली प्रथा चलती थी।मंदिर परिसर में बली के चलते खून ही खून बिखरा था।उस दिन भलई माँ के मंदिर में दयानंद मठ के महामंडलेश्वर भी प्रस्तुत  थे। वो मंदिर की हालत देखकर परेशान हो उठे और लोकि नन्द  से सीधे पूछा कि ये मंदिर का क्या हाल है? क्या दिव्य स्थान को इस तरह देखना ठीक है? उस वक़्त लोकि नन्द  शर्मा जम्मू में पढ़ा करते थे और अपने पिता की मदद करने के लिए छुट्टियों में मंदिर में उनकी सहायता किया करते थे।महामंडलेश्वर की बात सुनकर उन्हें अच्छा नहीं लगा। यह बात उनके मन को इस क़दर चूभि की उन्होंने बलि प्रथा को रोकने का मन बनालिया। वो ये जानते थे कि यह सोचना आसान है पर इस बात को पूरा करना बहुत कठिन। फिर भी इस दिशा में उन्होंने अपने छोटे लेकिन मज़बूत क़दम  बढ़ाने शुरू कर दीये।पहले तो इस बात को समझने के लिए कोई तैयार ही नहीं था।सालों से ये प्रथा चलती  आ रही थी।स्थानीय निवासियों को ये लगता था कि अगर बकरे की बलि नहीं दी जाएगी तो भलई मॉ  उनसे नाराज़ हो जाएगी।धीरे धीरे एक एक श्रद्धालु को लोकि नन्द  शर्मा ने समझाना शुरू किया, की माँ को ख़ुश करने के लिए बली चढ़ाने की ज़रूरत नहीं है। पर ये बात कहने से श्रद्धालुओं में बहुत रोष आ गया। उनका ग़ुस्सा सर चढ़कर बोलने लगा।  शर्मा के लिए उस वक़्त केवल श्रद्धालुओं को समझाना ही एक मुहिम कार्य नहीं था, उनके पिता जो उस वक़्त के मुख्य  पुजारी थे और सालों से इस प्रथा का समर्थन करते आ रहे थे उन्हें भी ये समझाना  बहूत कठिन  था।पहले तो उन्होंने 1- 1 श्रद्धालु से बात करनी शुरू की। फिर भी नतीजा न   निकलते देख ,उन्होंने एक उपाय निकाला।अब उन्होंने कहा कि आप बकरे को मंदिर में ले आए, पानी डाल कर उसे गीला कर दे और उसके कान पर हल्का सा चीरा लगाकर माता के चरणों में उसका खून चढ़ा  दे, बली पूरी हो जाएगी। पर ये भी न चल पाया। अब जो  श्रद्धालु बकरा लेकर आते थे लोकि नन्द  उसे गीला करवा कर, बकरे के कान में चीरा लगवाकर उसे  मंदिर परिसर में ही स्टोर में बंद कर देते थे।वह कहते थे की माता ने बकरा स्वीकार कर लिया। श्रद्धालुओं के जाने के कुछ घंटे बाद वो उस बकरे को छोड़ दिया करते थे। धीरे धीरे ऐसा करते हुए तक़रीबन 2-3 साल लगे इस प्रथा को बंद होने में।1982 में ये प्रथा पूर्ण रूप से इस मंदिर में बंद हो पाई।

इस मंदिर से जुड़ी बहूत सी कहानिया है।

यह माना जाता है कि उस वक़्त चम्बा के राजा महाराजा प्रताप को भलई मॉ  सपने में नज़र आईं उन्होंने कहा कि पानी के चश्मे के पीछे जो दीवार है वहाँ से तुम आकर मुझे निकाल लो और मेरा मंदिर बनाओ। जब राजा वहाँ पर गए तो पानी के चश्मे की दिवार के पीछे माता की मूर्ति को वैसे ही वहाँ  पाएगा। वो इस मूर्ति को लेकर चम्बा जाना चाहते थे। पर कहा जाता है कि जब वो इस मूर्ति को लेकर आए और भलाई से चम्बा की ओर जा रहे थे तो  विश्राम करने के लिए रुके।।यहाँ ये मूर्ति इतनी भारी हो गयी की राजा उसे दुबारा उठा ही नहीं पाए।  माता की मूर्ति को चम्बा ले जाने के लिए मनाने के लिए बड़े बुजुर्गों को बुलाया गया। एक बुजुर्ग जो लोकि नन्द  के दादा थे और राजा के ही दरबार में काम किया करते थे उन्होंने कहा कि अगर ये मूर्ति आपके साथ जाना चाहती है तो आपकी गोद में आ जाएगी आप इसे उठा पाएंगे अगर ये यहीं रहना चाहती है तो ये मेरी गोद में आ जाएगी मैं इसे उठा पाऊंगा। राजा के लाख कोशिश करने के बाद भी वह भलई माँ की मूर्ति को नहीं उठा पाए।राजा के लिए  मूर्ति बहुत भारी हो गई , जबकि जैसे ही उस बुजुर्ग ने मूर्ति  उठायी तो वह फूल जैसी हल्की होकर उनके हाथों में आ गई। इसके बाद भलई माँ की मूर्ति को भलई में ही स्थापित कर मन्दिर  बना दिया गया।

यह मूर्ति हमेशा भलाई में ही रहना चाहती है इसको लेकर भी  कहानियां प्रसिद्ध है।

ये कहा जाता है कि चम्बा के राजा का बेटा इस मूर्ति को भलई से चबा ले जाने के लिए आएगा।वह इस मूर्ति को रावी तक लेगया। लेकिन जैसे ही वह नदी पार करने के लिए नदी में पैर डालता था,वह दृष्टिहीन हो जाता था।मूर्ति उठाए हुए  जैसे ही वो पानी से बाहर निकालता तो उसकी दृष्टि वापस आ जाती।इस कहानी के ज़रिए भी यह माना जाता है कि दुर्गा माता का यह रुप भलई में भलई माता के नाम से ही दर्शन देना चाहता है और चम्बा नहीं जाना चाहता।

यह सारी कहानियां बहुत पुरानी है लेकिन यह बात हाल की हि है। 1973 यह मूर्ति चोरी हो गई।पुलिस में  केस दर्ज करवाया गया और इस मूर्ति को ढूँढना शुरू कर दिया गया। चोर यह मूर्ति नदी किनारे छोड़ गए थे जिससे पुलिस ने बरामद कर लिया। क्योंकि पुलिस केस बन चुका था तो उस वक़्त वहाँ पर आय चम्बा कि SP और DSP ने कहा कि इस मूर्ति को चम्बा पुलिस स्टेशन ले जाकर कार्यवाही   पुरी करकर ही वापस लिया जा सकता है ।उस वक़्त  लोकि  के पिता वहाँ के मुख्य पुजारी थे। उन्होंने पुलिस अफ़सरों से दरखास्त कि की मूर्ति चम्बा नहीं जाना चाहती। पढ़े लिखे अफ़सरों ने कहा कि आप किस तरह की बात करते हैं? हम जानते हैं कि माता के साथ सभी की श्रद्धा जुड़ी हैं हम सिर्फ़ काग़ज़ों को पूरा करने के लिए मूर्ती को चम्बा ले जाना चाहते हैं और उसके बाद आपको सौंप दी जाएगी। जब  शर्मा के पिताजी ने इस पे भी हामी ना भरी तो पुलिस अफ़सरों ने उनसे कहा कि क्या आप हमें माता का तेज दिखा सकते हैं?शर्मा  ने बताया कि उसी वक़्त उनके पिताजी ने  धूप जलाकर वहाँ पर माता की पूजा शुरू कर दी। वह पहला दिन था जब माता की मूर्ति से पसीना निकलने लगा। ये पसीना इतना ज़्यादा था कि पुलिस अफ़सरों ने अपने हाथों में ये पसीना इकट्ठा किया और माता की मूर्ति को  भलई में ही रहने दिया।

जब इस मंदिर की स्थापना हुई उस वक़्त स्त्रियों का इस मंदिर में जाना वर्जित था।1957 में एक ग्राम सेविका दुर्गा देवी को माता स्वप्न  में दिखाई दी और कहा कि तुम मेरे मंदिर आओ। उस वक़्त मंदिर में नौ सिखिया हुआ करती थी ।माता के निर्देश अनुसार दुर्गादेवी हर नवरात्रि को एक सीढ़ी चढ़कर वहाँ पूजा करती थी और वापस लौट जाती थी ।नवमे  नवरात्रे को  नौ सीढ़ियाँ  इकट्ठे चढ़कर वहाँ मंदिर में दाख़िल हुई और उसके बाद से स्त्रियां भी माता के दर्शन करने लगे।

इससे पहले यह माना जाता है कि राजा की बहू माता का आदेश ना मानते हुए उनके दर्शन करने चली आयी थी।जैसे ही वो मूर्ति के सामने आयी उसने अपनी दृष्टि सदा के लिए खोदी थी। इस घटना की पुष्टि करने के लिए एक चाँदी की थाली जिस पर राजा की बहू का माफ़ीनामा लिखा हुआ है वह आज भी इस मंदिर में माता की मूर्ति के पास देखी जा सकती है।

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